रानी जोशी, राजस्थान पल्स न्यूज़
जन्माष्टमी भगवान कृष्ण के जन्म का उत्सव है, यह भारत में सबसे अधिक हर्षोल्लास पूर्ण और जीवंत त्योहारों में से एक है। जन्माष्टमी लाखों भक्तों के ह्रदय में एक विशेष स्थान रखती है।
अब बदल रहा स्वरूप
कृष्ण जन्माष्टमी का स्वरूप अब धीरे-धीरे बदल रहा है। ज्यादा पहले की नहीं, बीते हुए दशक की बात करें, तो काफी बदलाव आ गया है। पूर्व में जहां घरों में बच्चे मिट्टी के खिलौनों से कान्हा, राधिका, गोपियां, ग्वाले, गायें, कंस, कालिया नाग सरीखी झांकियां सजाते थे। माटी की पाल बनाकर उसमें पानी भरकर लोहे से बनी एक छोटी सी नाव जो रुई की बाती जलाने पर चलती थी। ऐसी झांकियां देखने के लिए भी बड़ी संख्या में लोग उमड़ते थे। इन झांकियों में समानता यह थी कि सभी में खिलौने परम्परागत होते थे और उनके पीछे सोच और भावना भी परंपराओं से जुड़ी होती थी। नए के नाम पर कोई रुई से पहाड़ बना लेता, तो कोई काली घटाएं। इन सब में कृष्ण लीला का ही चित्रण था। लेकिन अब धीरे-धीरे समय के साथ झांकियों की रंगत बदल गई है। अब लकड़ी व अन्य धातुओं से बने खिलौनों की जगह अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक खिलौने ने ले ली है । कई जगह वर्तमान हालातों पर तो कही खेलों पर झांकियां बनाई जा रही है। कुछ एक ही जगहों पर आज भी कृष्ण लीला से ओत-प्रोत झांकियां सजती है, जिसमे श्री कृष्ण की लीला का बखान होता है।
अब कृत्रिम फूलों से सजावट, इलेक्ट्रिक वाद्य यंत्र
जन्माष्टमी एक ऐसा त्यौहार है जिसकी सजावट घरो, गलियारो और मंदिरो सब में की जाती है। कुछ समय पहले की आध्यात्मिकता ने आधुनिकता का स्थान ले लिया है। पहले जहां मंजीरा, ढोलक आदि के साथ आस्थावान लोग स्वयं भजन करते थे। जो की मन को शांति प्रदान करने वाला होता था। इसके श्रवण से हर आदमी भक्तिरस में डूब जाता था। उन वाद्ययंत्रों की ध्वनि मस्तिष्क को एक ऊर्जा प्रदान कर भक्तों का ध्यान प्रभु श्री कृष्ण पर केंद्रित करती थी।
झांकी की सजावट के समय अशोक के पत्तो का उपयोग हुआ करता था, अशोक का अर्थ है “शोक रहित ” जो कि सुख, शांति व समृद्धि का श्रोत होता है। अशोक की पत्तियां कीटाणुरोधक का काम करती हैं। यह वातावरण को शुद्ध कर संक्रमण से बचाती हैं सजावट में अनेक प्रकार के पुष्पों का प्रयोग भी किया जाता था जिसमें मोगरे का फूल प्रमुख रूप से प्रयोग किया जाता था मोगरे का फूल अशांत मन को शांति प्रदान करता है और वातावरण में उत्साह व उमंग लाता है।
लेकिन आज उन मंजीरों और पारंपरिक वाद्य यंत्रों का स्थान इलेक्ट्रॉनिक म्यूजिक सिस्टम ने ले लिया है, जिससे निकलने वाली तेज और कर्कश ध्वनि कुछ देर बाद आपके कानो और मस्तिष्क को चुभने लगती है, शांति की जगह ये ध्वनि मन को और उद्वेलित करती है। भजनों का स्थान फ़िल्मी गीतों ने ले लिया है। प्राकृतिक पत्तियों और फूलो की जगह बाजार में मिलने वाले कृत्रिम फूल पत्तियों का प्रयोग होने लगा है, रंगो से बनी रंगोली की जगह कागज से बनी रंगोली का प्रचलन ज्यादा बढ़ गया है। हमारे त्योहार जिनका उद्देश्य मानव को प्रकृति और ईश्वर से जोड़ना था उसकी जगह इन कृत्रिम साधनों के प्रचलन से हम प्रकृति और ईश्वर से दूर होते जा रहे है।
अब भोग भी दुकानों से लाते हैं जहाँ शुद्धता की आशा कर पाना मुमकिन नही
कुछ सालो पहले तक भगवान को लगाने वाला भोग घर पर बनाया जाता था, इसमें कई तरह के पकवान बनते थे, जो पूरी तरह से शुद्ध और सात्विक होते थे। आज भी कुछ लोग जो श्री कृष्ण की पूजा वैष्णव संप्रदाय के नियमों के अनुसार करते है उनके घरों में बाल गोपाल के लिए अलग से रसोई होती है जहां सिर्फ़ भगवान का ही भोग बनाया जाता है। परंतु आज उसकी जगह 56 भोग से सजी थाली ने ले लिया है, जो बाजारों में तैयार मिलती है। पाश्चात्य सभ्यता के मेल से केक का प्रचलन भी काफी बढ़ गया है, रात के 12 बजे कान्हा जी के आगे मटकी स्वरुप केक भी काटा जाने लगा है। बाज़ार में मिलने वाले इस भोग की शुद्धता तो छोड़ो इसमें काम में ली गई सामग्री की गुणवत्ता का भी अंदाज़ा लगाना मुश्किल है।
उद्देश्य से भटक रहे हैं
हमने त्यौहारों के मुख्य उद्देश्य को भूलाकर उसमे दूसरी संस्कृतियों की मिलावट कर दी है। आज भावनाओं में कमी आ गई है। किसी भी पर्व और उत्सव को मनाने में लोग बाहरी तौर पर आडम्बर बहुत करने लगे हैं। यहीं वजह है कि हम अपने त्योहारों को मनाते जरूर है लेकिन उनमें भावो की कमी आ गई है।